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कब वो संगदिल बन गया
जाने कहाँ ,कब मिला और कब वो संगदिल बन गया दफन थे हर गम जो , अब राज़-ए-दिल बन गया ज़माने ने खुदगर्जी का कुछ ऐसा सिला ...
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जाने कहाँ ,कब मिला और कब वो संगदिल बन गया दफन थे हर गम जो , अब राज़-ए-दिल बन गया ज़माने ने खुदगर्जी का कुछ ऐसा सिला ...
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जब भी कलम उदास था इक पन्ना थमा दिया दो जहाँ के उस खुदा ने क्या क्या थमा दिया कलम स्याही में डूबा कर ज़ज्बा-ऐ-सुखन दिया सुख...
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कोई भी नज़राना दे दे , राही को एक ठिकाना दे दे या तो मरहम कर दे आ कर या कोई दर्द पुराना दे दे मैं भी गाऊं तनहा तनहा साँसों का अफसाना द...

ाउर आजकल लोग शायद ये सारे मतलव भूल गये हैं। बहुत अच्छी रचना। बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रेममय कविता !
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