साँसे चलती हैं
तितलियोंकी तरह
खुशबू मिलते ही थिरकती है
जीने की ख्वाइश में ...
अधरों को इंतज़ार है
उसके बसंती मुखरे का
जो गा उठेंगी रूहानी नगमे
कोयलिया की तरह स्वागत में...
कदम तो मृग के जैसे ही हैं
जो दूर मंजिल को तकते हैं
मरीचिका की तरह
और कोशिश करते हैं
उसे पाने की हरदम ...
और हथेलियाँ हैं
माली के हाथों सा जो
बगिये को रोज़ सिचता है
किसी के इंतज़ार में ..
कोई नहीं तो तितली भौरें ही आते हैं
खुशबू के लिए
जैसे
तेरे स्नेह की छाँव के लिए
आया किया करते थे हम ..
और स्वप्न बादल की तरह हैं
जो ढक लेते हैं मुझे
जब भी तेरे
आँचल की याद आती है माँ ...
यहाँ परदेश में
यही खिलौने हैं अपने
अब कोई खिलौना नहीं मांगूंगा माँ ...
वाह बहुत ही मनभावन प्रस्तुति।
ReplyDeleteमृदुल भावों की सहज रचना।
ReplyDeletebahut aabhaar vandana ji evam praveen ji
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