जाने कहाँ ,कब मिला और कब वो संगदिल बन गया
दफन थे हर गम जो , अब राज़-ए-दिल बन गया
ज़माने ने खुदगर्जी का कुछ ऐसा सिला दिया उसे
कि वो बेगर्ज़ आशिक , खुद का , बिस्मिल बन गया
इक बंजारिन से उसने कुछ ऐसे दिल था लगा लिया
गोया कोई मासूम खुद का ही इक कातिल बन गया
नज़र -ए -इनायत की कोई ख्वाइश नहीं थी उसे
मिलती रहे उनको खुशी बस यही हासिल बन गया
बेपनाह मुहब्बत में कुछ ऐसे गुनाह हो गए "नील"
की कब कोई गैर आकर उनके काबिल बन गया
यूँ तो उनकी चाहत में इतने हसीं नगमे कहे
मगर फिर भी दीवाना उसका , इक जाहिल बन गया