Friday, February 1, 2013

कब वो संगदिल बन गया


जाने  कहाँ  ,कब  मिला और कब वो  संगदिल बन गया 
दफन  थे  हर  गम जो  , अब  राज़-ए-दिल  बन  गया 


ज़माने  ने  खुदगर्जी  का  कुछ  ऐसा  सिला  दिया  उसे 
कि  वो  बेगर्ज़  आशिक , खुद  का , बिस्मिल  बन  गया 


इक  बंजारिन  से  उसने  कुछ  ऐसे  दिल  था  लगा  लिया 
गोया  कोई  मासूम  खुद  का  ही  इक  कातिल  बन  गया 


नज़र -ए -इनायत  की  कोई  ख्वाइश  नहीं  थी  उसे 
मिलती  रहे  उनको  खुशी  बस  यही  हासिल  बन  गया 


बेपनाह  मुहब्बत  में  कुछ  ऐसे  गुनाह  हो  गए "नील"
की  कब  कोई  गैर  आकर  उनके  काबिल  बन  गया 


यूँ   तो   उनकी    चाहत  में  इतने  हसीं  नगमे   कहे 
मगर  फिर  भी   दीवाना  उसका , इक  जाहिल  बन  गया 

Wednesday, December 19, 2012

न जाने किस किस बात पर हंगामा हो गया

न जाने किस किस बात पर हंगामा हो गया 
क्यूँ बिखरे हुए हालात पर हंगामा हो गया 

होता है हर सिम्त ,कहाँ है सुकून मयस्सर 
कभी कज़ा तो कभी हयात पर हंगामा हो गया 

वो सूरज जलता है हर दिन करने को उजाला 
क्यूँ उसके इस सबात पर हंगामा हो गया 

खंजर छूरी तलवार पे होता तो बात थी 
क्यूँ काग़ज़ कलम दवात पर हंगामा हो गया

तंग हाल था शहर तो सब थे खामोश मगर
इक अच्छी सी शुरुआत पर हंगामा हो गया

दैर -ओ-हरम  में मिला नहीं हुनर बंदगी का
पर वहाँ हमारी ज़ात पर हंगामा हो गया 


हम तो हार चले आये थे कब की अपनी बाज़ी
क्यूँ हारी हुई बिसात पर हंगामा हो गया

क्यूँ दीवारें कायम हैं हर कूचा- ए- दिल में
कुछ सीधे से सवालात पर हंगामा हो गया

क्या मस्जिद ही में रहे अली और मंदिर में राम
इन उड़ते हुए ज़ज्बात पर हंगामा हो गया

तूफानों से संभल के कश्ती पहुंचा अपने साहिल
फिर क्यूँ उसकी औकात पर हंगामा हो गया

कब क़त्ल हुआ कब दफ़्न हुआ मालूम नहीं "नील"
न जाने किस वारदात पर हंगामा हो गया

******
कज़ा :death
हयात:life
सबात:stability,constancy
दैर -ओ-हरम:place of worship

Friday, December 7, 2012

कहाँ ठहरे


शम्म-ए -महफ़िल औ' ख़ुशी कहाँ ठहरे 
उम्र भर तक भला, ज़िन्दगी कहाँ ठहरे 

बिना उस रब की वो मर्ज़ी कहाँ ठहरे 
कल तो दूर है लेकिन ,अभी कहाँ ठहरे 

चराग ही तो हैं ,कुछ देर में बुझ जायेंगे 
सहन में देर तक ये रौशनी कहाँ ठहरे 

धडकनों पर कोई काबू जब नहीं होता 
पता नहीं अब कि दिल्लगी कहाँ ठहरे 

शेख जी तुमने बना लिए हैं खुदा के घर 
बता दो इतना कि आदमी कहाँ ठहरे 

ज़रुरत जब समंदर हों,तो बता भी दें 
कि गुरबत्त में ये तश्नगी कहाँ ठहरे 

उन्हें रहने दो लहरों में,अभी रोको नहीं 
सलामत साहिलों पर कश्ती कहाँ ठहरे 

जिसे साँसों में हर पल सरगम सुनाई दे 
वो भला अब छोड़ के मौसिकी कहाँ ठहरे 

तुम्हारे ज़हन-ओ-दिल का मिला तोहफा 
वगरना कमज़र्फ सी ये शायरी कहाँ ठहरे 

चंद पन्ने भर नहीं ,इक ज़िन्दगी है "नील" 
भला वो भूल के अपनी डायरी कहाँ ठहरे 
..........................................................
सहन :courtyard ,आँगन 
मौसिकी :music

Sunday, November 25, 2012

कोई मुझको भी नाराज़ करे

मेरी बातों पे ऐतराज़ करे 
कोई मुझको भी नाराज़ करे 

आ के इस दश्त की खामोशी में 
कोई थोडा सा आवाज़ करे 


कल की सुबह ,न जाने कैसी हो
जो भी करना है बस आज करे

बात रखने से पहले शायर
ये भी लाजिम है कि लिहाज़ करे

कोई शहरों का यहाँ मालिक है
कोई बस दिल पे यहाँ राज़ करे

शाम ढल जाए न मेरे यारों
कोई उसका तो अब इलाज़ करे

नील आँखों से सर-ए-महफ़िल अब
इल्तिजा कैसे बन्दा नवाज़ करे

Tuesday, November 20, 2012

साँसों का अफसाना

कोई भी नज़राना दे दे ,
राही को  एक ठिकाना दे दे 

या तो मरहम कर दे आ कर 
या कोई दर्द पुराना दे दे 

मैं भी गाऊं तनहा तनहा 
साँसों का अफसाना दे दे 

मैं भी अब पैमाना भर लूँ 

काग़ज़ का मयखाना दे दे

इन्द्रधनुष सी रंगों वाला
बचपन का ज़माना दे दे

रुसवा कर के इक काफिर को
गलियों को दीवाना दे दे

मेरे हर्फों को थोड़ा सा
लहजा शायराना दे दे

आ मेरे टूटे तीरों को
यारा तल्ख़ निशाना दे दे

नील नज़र को खामोशी में
जीने का  कोई  बहाना दे दे

Saturday, November 3, 2012

मुझको अपने शहर ले चलो

मुझको अपने शहर ले चलो 
है दूर फिर भी मगर ले चलो

जिधर ज़िन्दगी है उधर ले चलो 
ज़रा ज़ल्द ए रहगुज़र ले चलो 

लिखता रहेगा वहाँ बैठ कर ,
उसे  काग़ज़ों के घर ले चलो  

कश्ती खुद ही चला लेंगे हम 
माँझी नहीं  तुम अगर ले चलो

कई रंग की है ये  ज़िन्दगी
कभी ग़म कभी खुश खबर ले चलो  

ए वक़्त ठहरो ,वो रूठे नहीं 
ज़रा सी छुपा  के नज़र ले चलो 

ले कर कलम ,काग़ज़ ,दवात 
आज तुम भी कोई हुनर ले चलो 

गुलशन को अपने सजाने को तुम 
मेरे नज़्म की ये शज़र ले चलो 

रख लो जहाँ भर के तुम आंकड़े 
है नील की ख्वाइश शिफर ले चलो 

Sunday, October 14, 2012

हम ढूंढते थे पयाम किस खुदा का अब तलक


जब भी कलम उदास था इक पन्ना  थमा दिया 
दो जहाँ के उस खुदा ने  क्या क्या थमा दिया 

कलम स्याही में डूबा कर ज़ज्बा-ऐ-सुखन दिया  
सुखनवरी का एक रौशन सिलसिला थमा दिया 

बैठे थे राही मोड़ पे जाने किस ख्यालो-ओ-ख्वाब में
उन गिलामंदों को भी एक रास्ता थमा दिया 

हर मरासिम ज़िन्दगी के  देखते थे आ रहे ,
और किताबों से  भी वाजिब वास्ता थमा दिया 

हम ढूंढते थे पयाम किस खुदा का  अब तलक ,
और डाकिये ने ख़त हमें किस नाम का थमा दिया 

थे अकेले   ही  चले  नील  आसमां   ज़मीं    के बीच   
नज़्म    में रिश्ते    बना   के काफिला    थमा दिया  
..
सुखन:speech ,words
मरासिम:relation

कब वो संगदिल बन गया

जाने  कहाँ  ,कब  मिला और कब वो  संगदिल बन गया  दफन  थे  हर  गम जो  , अब  राज़-ए-दिल  बन  गया  ज़माने  ने  खुदगर्जी  का  कुछ  ऐसा  सिला ...