Saturday, June 30, 2012

तुम फिर कब ये बोलोगे


तुम  फिर  कब  ये   बोलोगे  की  मैं  ज़रा  ज़रा  बोलूं ,
कि  बहुत  देर  हुई  जागे  ,थोडा  मैं  भी  सो  लूं 

वो  रूठना  का  दौर  ,वो  मनाने  की  ज़द्दोज़हत 
वो  तेरा   देखना , तेरे  वास्ते   संदूक   जब  खोलूं 

वो  तेरी  मासूमियत  ,वो  सादगी ,आवाज़  का  जादू 
जी  चाहता   था  तेरे  सामने  जी  भर   के  रो  लूं 

अब  मेरे  दरीचे  के  सामने  इक  दरख़्त   खड़ा  रहे 
झूला  जब  कभी टंगे ,  मैं  बीते  पन्नो  को  टटोलूं   !

मेरे  दश्त   में  तेरी  पुरवाई  की  महक  अब  भी  बसे 
मैं  तेरी  याद  से  हर्फों  की  अमराई   में  रस   घोलूँ  !!

कभी  तेरे  ख्यालों  में  कभी  टेढ़े  सवालों  में 
घड़ी  घड़ी  डगर  डगर  मन  थाम  के  डोलूँ  !!

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कब वो संगदिल बन गया

जाने  कहाँ  ,कब  मिला और कब वो  संगदिल बन गया  दफन  थे  हर  गम जो  , अब  राज़-ए-दिल  बन  गया  ज़माने  ने  खुदगर्जी  का  कुछ  ऐसा  सिला ...