Sunday, January 1, 2012

काँटों को तो कोई पूछता नहीं है पतझर में

तपकर धुप में भी कहाँ नसीम-ए-शाम मिलता है
हैफ!मुल्सफी है कैसी, न कोई अब काम मिलता है

काँटों को तो कोई पूछता नहीं है पतझर में ,मगर
गुल के टूटने का उस पे ही देखो इलज़ाम मिलता है

मुहब्बत करने वाले यूँ तो यहाँ कम ही हैं लेकिन
जो करते भी हैं उनको सिर्फ  इक जाम मिलता है
बहुत दूर उड़ते हैं पंछी ,पिंजरे का कारोबार बहुत है 
गर सुस्ता लें बगिये में, तो कैद का अंजाम मिलता है 

मेरा हाल-ए-दिल ना पुछा करो यूँ रुक रुक कर
जिंदगानी में यहाँ किसको कभी आराम मिलता है

2 comments:

कब वो संगदिल बन गया

जाने  कहाँ  ,कब  मिला और कब वो  संगदिल बन गया  दफन  थे  हर  गम जो  , अब  राज़-ए-दिल  बन  गया  ज़माने  ने  खुदगर्जी  का  कुछ  ऐसा  सिला ...