Friday, August 26, 2011

अब कोई खिलौना नहीं मांगूंगा माँ

साँसे चलती हैं 
तितलियोंकी तरह 
खुशबू मिलते ही थिरकती है 
जीने की ख्वाइश  में ...

अधरों को इंतज़ार है 
उसके बसंती  मुखरे का 
जो गा उठेंगी रूहानी नगमे 
कोयलिया की तरह स्वागत में... 

कदम तो मृग  के जैसे ही हैं 
जो दूर मंजिल को तकते हैं 
मरीचिका की तरह 
और कोशिश करते हैं 
उसे पाने की हरदम ...

और हथेलियाँ हैं 
माली के हाथों सा जो
बगिये को रोज़ सिचता है 
किसी के इंतज़ार में ..

कोई नहीं तो तितली भौरें ही आते हैं
खुशबू के लिए 
जैसे 
तेरे स्नेह की छाँव के लिए  
 आया किया करते थे हम ..

और स्वप्न बादल की तरह हैं 
जो ढक लेते हैं मुझे 
जब भी तेरे 
आँचल की याद आती है  माँ ...

यहाँ परदेश में 
यही खिलौने हैं अपने 
अब कोई खिलौना नहीं मांगूंगा माँ ...

कब वो संगदिल बन गया

जाने  कहाँ  ,कब  मिला और कब वो  संगदिल बन गया  दफन  थे  हर  गम जो  , अब  राज़-ए-दिल  बन  गया  ज़माने  ने  खुदगर्जी  का  कुछ  ऐसा  सिला ...